प्रिय आत्मीय साधक,सीता का जो गूढ़ अर्थ है, वह किसी मात्र लौकिक स्त्री के रूप में समझने की सीमा से परे है।
सीता, इस चराचर जगत की मूल प्रकृति की प्रतीक हैं, और उनका अवतरण भूमि तत्त्व से होना कोई साधारण घटना नहीं है, यह आत्मबोध का सूक्ष्मतम स्वरूप है, जिसे केवल उर्ध्व चेतना वाले योगी ही समझ सकते हैं।विचार कीजिए, जब जनक अपनी अंतःकुण्डलिनी शक्ति के अभ्यास में निमग्न थे, तब उन्हें सीता का प्राकट्य हुआ। यह भूमि तत्त्व के माध्यम से चेतना का प्राकट्य है, जिसका गहरा संबंध हमारे मूलाधार चक्र से है। मूलाधार चक्र वह आधार है जहाँ से हमारी जीवन ऊर्जा संचालित होती है। यही वह शक्ति केंद्र है जहाँ से स्थिरता और सृजनात्मकता उत्पन्न होती है। ध्यान दें, भूमि तत्त्व और मूलाधार चक्र एक-दूसरे के पर्याय हैं, और यह वही स्थान है जहाँ से सीता जैसी दिव्य शक्ति का प्रकट होना संभव होता है।सीता का अयोनिजा होना—अर्थात, शरीर के सामान्य जैविक तत्त्वों से न उत्पन्न होना—यह बताता है कि वह सामान्य सृष्टि की प्रक्रिया से परे हैं। वह विदेह हैं, शरीर के बंधनों से परे हैं, आत्मा के मुक्त स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। विदेह जनक, जिन्होंने अपनी चेतना को इतनी ऊर्ध्व किया कि वे जगत के सूक्ष्मतम तत्त्व को धारण कर सके, उसी शक्ति से सीता का प्राकट्य किया।
इसलिए सीता केवल एक चरित्र नहीं हैं, वह मूल प्रकृति की साक्षात् अभिव्यक्ति हैं।जब हम प्राणायाम के अभ्यास द्वारा प्राणशक्ति को उर्ध्वगामी करते हैं, तब हमारी चेतना मूलाधार से स्वाधिष्ठान और मणिपुर चक्रों को पार करती हुई अनाहतचक्र में प्रविष्ट होती है। यही वह प्रक्रिया है, जहाँ से आत्मबोध का प्रारम्भ होता है। आत्मबोध वह स्थिति है जहाँ चैतन्य पुरुष और त्रिगुणात्मिका प्रकृति अलग हो जाते हैं। यह बोध हमें इस संसार की मोह-माया से मुक्त कर देता है, और इसी अवस्था में हम विदेह हो सकते हैं। यह विदेह स्थिति ही हमें सीता की शक्ति को समझने का और धारण करने का सामर्थ्य देती है।
वाल्मीकि रामायण और अथर्ववेद दोनों में सीता का वर्णन केवल एक देवी के रूप में नहीं, बल्कि सृजन की शक्ति के रूप में है। अथर्ववेद में सीता को ‘सुभगा’, ‘सुमना’ और ‘सुफला’ के रूप में वर्णित किया गया है। इन तीन गुणों का अर्थ एक साधक के जीवन में असीम महत्व रखता है। ‘सुभगा’ वह शक्ति है जो चेतना को अनाहतचक्र तक ले जाकर उसे प्रकट करती है। ‘सुमना’ वह महत् तत्त्व है जो महर्लोक से जीवों के प्राकट्य का साधन बनता है। और ‘सुफला’ वह शक्ति है, जो एक बीज से अनगिनत जीवों का सृजन कर सकती है।रावण सीता को पटरानी बनाना चाहता था क्योंकि वह इन दिव्य गुणों की शक्ति को पहचानता था। लेकिन, वह इस बात से अनभिज्ञ था कि सीता केवल राम के लिए ही सुफला हो सकती थीं, क्योंकि राम, चैतन्य पुरुष थे, जिन्होंने अपनी उर्ध्व चेतना से सृष्टि की हर परत को समझ लिया था। केवल चैतन्य पुरुष ही उस दिव्य शक्ति का उपयोग कर सकते हैं, जो सृजन का मूल आधार है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है, “प्राणा वै सीताः”। यह सूक्त बताता है कि सीता की प्राप्ति केवल प्राणायाम से ही संभव है। ध्यान-साधना के माध्यम से जब साधक अपनी प्राणशक्ति को नियंत्रित करता है, तो वह सीता की शक्ति को धारण करने में सक्षम हो जाता है। यह शक्ति केवल साधक के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जगत के लिए होती है। यह वह स्थिति है जब साधक, विदेह हो जाता है, अर्थात, वह शरीर और आत्मा के द्वैत से ऊपर उठकर सम्पूर्ण सृष्टि के सार को धारण कर लेता है।प्रिय साधक, यह ध्यान-साधना की यात्रा है, जो बाह्य से आंतरिक, और आंतरिक से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की ओर ले जाती है। यह वही विद्या है जिसे ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम को सिखाया था, और जिसके माध्यम से श्रीराम ने जनक के स्वयंवर में सीता का पाणिग्रहण किया। यह कुंभक प्राणायाम की शक्ति है, जिसके अभ्यास से ही साधक आत्मबोध की ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है।यह विद्या एक दीपक की तरह है, जो जगत के अंधकार को दूर कर देती है। यह वह बूंद है, जो महासागर में भी तरंगों का संचार कर सकती है।
उपनिषदों और गीता में वर्णित यह ब्रह्मविद्या साधक के लिए परम मार्गदर्शक है।अंततः, यह समझें कि सीता, राम, और रावण की कथा केवल ऐतिहासिक घटनाएं नहीं हैं, वे हमारे भीतर चलने वाले आत्मिक संघर्षों की प्रतीक हैं। जब तक हम अपने भीतर के रावण (अहंकार और अज्ञान) को नहीं परास्त करेंगे, तब तक सीता (मूल प्रकृति) का सही अर्थ हम नहीं समझ पाएंगे। और यह परास्त करना केवल राम (चैतन्य पुरुष) के मार्गदर्शन में ही संभव है।साधक बने रहें, अपनी साधना के माध्यम से आत्मबोध को प्राप्त करें। यही सच्ची मुक्ति का मार्ग है।