निषिद्ध कर्म, उसका स्वरूप भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है। गहन मतलब, सूक्ष्म, बारीक। पता नहीं चलता, रहस्यपूर्ण है। कब कर्म कर्म होता, कब अकर्म होता, यह तो है ही कठिनाई। कर्म कभी-कभी निषिद्ध कर्म भी होता है, तब और कठिनाई है। निषिद्ध कर्म के संबंध में थोड़ी बात खयाल में ले लेनी चाहिए।
निषिद्ध कर्म को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो, कि हम कुछ कर्मों को तय कर लें कि ये निषिद्ध हैं, जैसा कि अदालत करती है, कानून करता है। कानून, कर्म तय कर लेता है कि ये निषिद्ध हैं। चोरी करना निषिद्ध है; हत्या करना निषिद्ध है; आत्महत्या करना निषिद्ध है। कुछ कर्म तय कर लिए हैं। ये निषिद्ध हैं, ये नहीं करने चाहिए।
लेकिन कानून बहुत बारीक नहीं होता। धर्म और भी बारीक खोज करता है। धर्म जानता है कि कभी-कभी कोई कर्म किसी परिस्थिति में निषिद्ध हो जाता है और किसी परिस्थिति में निषिद्ध नहीं होता। हत्या साधारणतया निषिद्ध है, युद्ध के मैदान पर निषिद्ध नहीं होती है।
निषिद्ध निर्णीत चीज नहीं है; परिस्थिति के साथ बदल जाती है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि दो निषिद्ध कर्मों के बीच विकल्प खड़ा हो जाता है, आल्टरनेटिव हो जाता है। क्या करो? सच बोलो, तो हिंसा हो जाती है। हिंसा बचाओ, तो झूठ बोलना पड़ता है। फिर क्या करो? दो निषिद्ध कर्म आड़े खड़े हो जाते हैं। एक को बचाओ, तो दूसरा निषिद्ध कर्म होता है। दूसरे को बचाओ, तो पहला हो जाता है।
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उपाय क्या है समाधान क्या है यही प्रश्न की खोज अध्यात्म का प्रथम मार्ग कर्म अकर्म विकर्म सुकर्म निश्चित कर्म का उत्तर की तलाश ही अध्यात्म की खोज है