जिन लोगों के जीवन में ईश्वर की जरूरत नहीं है, वे यदि ईश्वर की सत्ता पर विचार न करें, तो यह कोई बहुत झगड़े या विवाद की बात नहीं है। इसे यदि इस दृष्टि से देखें कि जैसे किसी देश में राष्ट्रपति होता है और राष्ट्र का एक संविधान होता है। राष्ट्रपति को जानना या उनसे मिलना या परिचय होना अपने आप में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जिनका राष्ट्रपति से परिचय है या निकट का संबंध है, उस व्यक्ति के मन में एक बड़े गौरव की अनुभूति होती है कि राष्ट्रपति उसके अपने हैं। लेकिन सभी व्यक्ति तो राष्ट्रपति से व्यक्तिगत रूप से परिचित, उनके निकट संबंधी या मित्र नहीं होते। ऐसे व्यक्तियों के लिए राष्ट्रपति को जानना आवश्यक नहीं है और न जानने से कोई विशेष फर्क ही नहीं पड़ता, लेकिन राष्ट्र का जो संविधान है, उसे तो जानना ही पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि राष्ट्र का जो नियम बना हुआ है, जिस सविधान के आधार पर आपका देश चल रहा है, उन नियमों को यदि आप ठीक-ठीक जानते हैं और उसका ठीक-ठीक पालन करते हैं, तो राष्ट्रपति से परिचय न होने पर भी आपके सामने कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं आती। इसी क्रम का वर्णन हमारे शास्त्रों में और ‘मानस’ में भी किया गया है।
यह जो कर्मशास्त्र है, जिसका एक नाम मीमांसा शास्त्र भी है, वह है संविधान और शास्त्रों की मान्यता है कि वह ईश्वर का विधान है, ईश्वर का बनाया हुआ नियम है।